चंद्र सेन
संजय लीला भंसाली की एक और दुखान्त प्रेम-कहानी- बाजीराव-मस्तानी। हर फिल्म
निर्देशक की अपनी एक खासियत होती है। भंसाली
को भव्य-सेट और प्रेम की पराकाष्ठा
को पर्दे मे बखूबी चित्रित करने की महारात हासिल है। इसे उनकी सभी फिल्मो में
देखा जा सकता है। मसलन, देवदास, साँवरिया, खमोशी, गुजारिश, हम दिल दे चुके सनम सहित
राम-लीला और मैरीकॉम।
दर्शक उपर्युक्त विशेषताओं को ‘बाजीराव-मस्तानी’ में भी असानी से नोटिस कर सकते हैं। दूसरी बात, भंसाली साहब ने एक हद तक महिलाओं के इर्द-गिर्द
अपनी कहानियों को बुना है। या यूँ कहें कि हीरो यानी पुरुषों के स्टेज हाई-जैक
करने की प्रथा पर लगाम लगाया है। प्रेम एक ऐसा कृत्य है, जिसे ये सामंती-रूढ़िवादी और जाति-धर्म तथा वर्ग आधारित समाज कभी नहीं बर्दाश्त
करता है। साथ ही साथ मधुर संगीत, डांस, रोना-धोना, त्याग, इज्जत-मर्यादा और भारतीय
रूढ़िवादी संस्कारों से संघर्ष भंसाली
की फिल्मों की अन्य विशेषतायें हैं।
राजनीतिक इतिहास को लेकर विद्वानों ने अपनी कई दिक्कतें ज़ाहिर की हैं, जो कई मायनें में जायज़ भी
हैं। ये इतिहास महलों और राजा-रानियों तक सिमटा है जो कूटनीतिक-चालबाजियों और
युद्धों का एक पुलिंदा है। मतलब एक ख़ास वर्ग अर्थात कुलीनों का लेखा-जोखा। पूरा का
पूरा राजनीतिक इतिहास शासक तबके की विचारधारा और उनकी नीतियों का दस्तावेज है। तब
सवाल उठता है कि आम जनमानस और उसके सरोकार क्या रहे हैं? इतिहास में उनका नमोनिशान क्यों नहीं है? उसके जीवन की समस्याएं तथा
देश और समाज को बनाने में उनकी क्या भूमिका रही है? और इन्ही सवालों ने जन्म दिया एक नये इतिहास लेखन
को जिसे हम प्राय: सामाजिक इतिहास कहते हैं। या यूँ कहें कि एक नये इतिहास लेखन का
दौर चालू हुआ जिसे ‘हिस्ट्री फ्राम बिलो’ कहा जाता है। राजाओं की स्तुतियाँ करने वाले और उनकी कारगुजारियों पर पर्दा
डालने वाले कवियों और इतिहासकारों को दरबारी या भांड कहा जाता रहा है।
अब सवाल उठता है कि ऐसे इतिहासकारों की पोथियों को कट-पेस्ट कर यदि कोई
फ़िल्मकार फ़िल्म बनाता है, तो उसे किस कटेगरी मे रखा जाये? वो भी तब जब फ़िल्मकार का दावा है कि ये पटकथा ‘वेल रिसर्च्ड’ है!
ऐतिहासिक विषयों पर आधारित पटकथा में हमेशा यह संभावना रहती है कि उसके तथ्य और संवादों को
कलाकार अपने तरीके से पेश करे, यह एक कलाकार का अपना अधिकार है। निर्देशक कोई इतिहासकार तो नहीं होता,
वह एक कमर्शियल मूवी बनाता
है और उसका मक़सद जनता का मनोरंजन और धन वसूलना होता है, ये तर्क हमेशा दिए जाते रहें हैं।
क्या इनके मनोरंजन परोसने के पीछे कोई और मक़सद नही होता है? इस मनोरंजन की भी तो राजनीति
होती होगी? क्या यही मनोरंजन
हमारे संस्कारो और मूल्यों को नहीं गढ़ रहे हैं? अगर ऐसा नहीं है तो ‘वाटर’, ‘बैंडिट क़्वीन’, ‘कोर्ट’ या अन्य फिल्मों पर
सेंसर बोर्ड अटक -अटक कर फैसले क्यों करता है ? रोजाना थोक में बन रही मसालेदार फ़िल्में हिट हो रही
हैं, जो घोर महिला विरोधी
होने के साथ-साथ सेक्सिस्ट तथा अल्पसंख्यकों और मार्जिन के लोगों को गलत प्रोजेक्ट कर रही हैं।
अन्य पटकथाओं की भांति ‘बाजीराव-मस्तानी’ की भी एक राजनीति है। ये उसी वर्चस्ववादी राजनीति की एक कड़ी है, जो ऊपर से वक़ालत करती है कि
आज जातिवाद की कोई समस्या नहीं है। लेकिन, आज भी पूरा समाज टोलो-बाड़ों मे (गावं से लेकर शहर तक) बंटा
है। रोज हो रही दलितों की हत्याएं, बलात्कार और ऑनर-किलिंग के साथ-साथ जातिवादी इश्तहार कुछ इसके सतही प्रमाण
हैं।
कहानी (‘बाजीराव-मस्तानी’) एक सनातनी राजा की है, जो हिंदू राष्ट्र के सपने को
पूरा करने के लिये वचनबद्ध है। हिंदू धर्म की रक्षा और मनुस्मृति के विधानों को
लागू करना ही उसका राजधर्म है। इस पूरी मुहिम में मुग़ल रोड़ा हैं, इसलिए नायक मुग़लों के ख़ात्मे के लिए निकल चुका है। बुंदेलखंड के हिंदू-राज्य
को बचाने के लिए पूना से एक हिंदू (पेशवा) राजा बिना शर्त उसकी मदद के लिये ख़ुद
जाता है। ये कथा उस इतिहास से प्रेरित है, जब हिंदू समाज मनु के दंड-विधान से चलता था। हमें याद रखना
होगा कि ये वही पेशवा और उनकी पेशवायी थी,
जो शूद्रों के गले मे हांडी और पीछे झाड़ू बंधा ना
अपनी शान समझते थी|
उन्हें हाथ में घंटी या फिर कोई आवाज़ करने वाली चीज़ लेकर चलना पड़ता था ताक़ि
उसके रास्ते में चलने की सूचना ब्राह्मणों
के कानों में सुनाई दे और ब्राह्मण
उसके रास्ते से हट जाएं। शूद्रों को दिन में बाहर निकलने की आजादी तक नही
थी, क्योंकि उनकी छाया से सवर्ण अपवित्र हो जाते थे।
शूद्रों की दशा अफ्रीका और अमेरिका के अश्वेत लोगों से भी बद्तर थी क्योंकी गोरो
ने अश्वेतो के साथ कभी भी छुआछूत नही किया। जहाँ एक तरफ शूद्रों की छाया अपवित्र
थी, वही अश्वेत लोगों कि पहुंच गोरों के किचेन और
डायनिंग टेबल तक थी।
डॉ आंबेडकर ने ‘द अनटचेबल्स एंड द पेक्स ब्रिटेनिका' में विस्तार से लिखा है कि किस तरह से महार सैनिकों ने
पेशवा के इस अत्याचार को 1 जनवरी 1818 ई॰ को कोरेगांव के युद्ध में समाप्त कर दिया था। हमें इस बात का ध्यान रखना
चाहिए कि मात्र 500 महार सैनिकों ने पेशवा राव के 28 हजार घुड़सवारों और पैदल सैनिकों की फ़ौज को धूल चटाकर देश
से पेशवाई का अंत किया था। ये तथ्य भंसाली जी के पूरे सिनेमाई प्रदत्त-इतिहास और
पेशवाओं की बहादुरी की पोल खोल देतें हैं| आगे चलकर इसका प्रतिकार डॉ. अम्बेडकर ने 1927 मे मनुस्मृति जलाकर किया
है। वेदों और स्मृतियों की सत्ता को नकार कर बराबरी और स्वतंत्रता पर आधारित
सविंधान को प्रमुखता प्रदान की गयी।
एक कहानीकार या इतिहासकार जो लिखता है उसमेँ उसकी सोच और राजनीति होती है।
लेकिन वो क्या छुपाता है, क्या क्या नहीं लिखता है, इससे भी हम उसके बौद्धिक षड्यंत्र का पता लगा सकते हैं। फिल्म ‘बाजीराव-मस्तानी’ कहानी मे भंसाली और उनकी
पूरी टीम ने इस काम को बखूबी निभाया है। पेशवाओं के इतिहास को शूद्रों और महिलाओं
के प्रति क्रूरता घृणा और अमानवीयता के रूप मे दिखाने की बजाय भंसाली जी ने उसे सेक्युलर और महिलाओं की कद्र करने वाले दस्तावेज के रूप
में महिमा मंडित करने की एक शातिर कोशिश की है। ये महिमा मंडन निश्चय ही नायक और
नायिका के प्रेम वियोग मे मृत्यु के रूप मे दिखाया गया है। ऐसा इतिहास मे हुआ ही
हो, इसमे संदेह है।
मजेदार तो ये है कि निर्देशक साहब तो
इस पट्कथा को महिला सशक्तीकरण के रूप में भी पेश करने की भरपूर कोशिश करते हुए
वाह्वाही लूटने की फिराक मे भी दिखते हैं।
इनका नारीवाद ब्राहमंवादी पितृसत्तात्मक विचार से आगे नहीं निकल सका। एक वीरांगना
(मस्तानी) को भी अपनी सुरक्षा के लिए भी अपने मर्द की ही जरूरत पड़ती है। शादी के
बाद उसके भी वही सपनें होते है जो एक आम भारतीय नारी की होती है, वही संस्कार वह निभाने को आतुर होती है। प्रेमी के चयन में भी
भंसाली की वीरांगना स्टीरिओटाइप की शिकार हो जाती है।
सेकुलरिज़म को अधूरे और विकृत रूप में पेश करने की हिंदी पटकथाओ की एक कोशिश
हमेशा रही है। भंसाली जी ने भी इसे एक प्रोजेक्ट के रूप मे लिया है। राष्ट्रवाद को
गढ़ने के लिये किसी एक मुसलमान को पाकिस्तानियों या आतंकवादियों से लड़ते हुये
दिखाते हैं या किसी हिंदू को या सिक्ख को दूसरे मजहबी दंगों में बचाना इनका प्रिय
शग़ल रहा है। इस कहानी में भी निर्देशक ने
यही काम नायिका और नायक के कुछ घिसे-पिटे सवांदो से पूरा कर दिया है। हरे रंग को
मुसलमानों और केसरिया या भगवा को हिन्दुवों के रंग पर बहस फिल्म का एक ऐसा ही
हिस्सा है। इस दृश्य में कथाकार रंगो को धर्म और मज़हब के चश्मे से ना देखने की
सलाह देते नजर आये हैं। ये है इनका सेकुलरिज़म। आजादी के बाद से यही नज़रिया आज तक
चला आ रहा है जिसे भंसाली जी ने भी बखूबी पर्दे पर दर्शाया है।
जब देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अल्पसंखयकों को पकिस्तान भेज देना
चाहिये, सरकार की गलत
नीतियों पर सवाल खड़ा करने वाले देशद्रोही और आतंकवादी है। देश की मौज़ूदा सरकार के
मंत्रियो और नेताओं की मुहिम हिंदू-राष्ट्र बनाने की है। सविंधान के स्थान पर
वेदों और स्मृतियों को तवज्जो दी जा रही
है। पड़ोसी देश नेपाल पर हस्तक्षेप आर्थिक
नाकेबंदी तक हो गया है। ये सिर्फ इसलिए कि वहां कि जनता ने हिंदू-राष्ट्र के स्थान
पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र को चुन लिया
है। इस माहौल में ऐसी पटकथा का आना निश्चय ही कई शंकाये और सवाल खड़े करता है। ये
सवाल बाजीराव-मस्तानी, भंसाली एंड कम्पनी की विचारधारा तथा बालीवुड की मंशा पर हैं।
चंद्र सेन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं
संपर्क : 9013472504
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